उत्तम आर्जव : मन वचन – काय की एकता आत्मा के ईश्वरीय गुण की प्रारंभिक अभिव्यक्ति है :- आचार्यश्री अनुभवसागर जी महाराज

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सागवाड़ा। मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सो करिये यह पंक्तियां प्रतिवर्ष बचपन से ही सुनते चले आये हैं. परंतु इसके अर्थ को आत्मसात करना अत्यंत कठिन है। तीर्थक्षेत्र कुण्डलपुर श्री वर्धमान सरोवर के किनारे हम ध्यान में बैठे थे ओर ध्यान के प्रारंभ से ही हमारी दृस्टि एक बगुले के अपर पड़ चुकी थी। हम उसे देखकर अत्यंत आश्चर्य चकित थे. चूंकि ग्रीम की कड़ी धूप में वह गरम गरम से पानी में किसी तपस्वी की तरह एक टांग पर खड़ा था हम अपने आप को धिक्कार रहे थे कि हम तो छांव ढूंढ कर बैठे, ध्यान का समय कुछ व्यतीत होने के उपरांत घटी घटना ने हमारे हृदय को झकझोर दिया, जब अचानक बगुले ने पानी में मुंह मारा और बड़ी सी मछली चोंच में दबाकर उड़ गया।

पूजन की ये पत्तियां मन मस्तिष्क में उछल कूद करने लगी। इतनी काठिन साधना का उद्देश्य मात्र पेट की भूख शांत करना। जैनाचार्य इस विभाव को मायाचार कहते है जिसका अर्थ होता है कुटिलता मन के विचार वचन का प्रसार और काया का अचार जब संतुलित नहीं होते, एक जैसे नही होते तब यह कुटिलता या मायाचार कहलाती है, जबकि विचार, वचन और व्यवहार यानि मन, वचन और काय की एकता संतुलन) ही ऋजुता कहलाती है जो आत्मा के आर्जव स्वभाव की जड़ है। व्यवहार में सरलता आये बिना उत्तम आर्जव धर्म टेढ़ी खीर ही है । सांप कितना ही टेढ़ा मेदा वक्र गति से चलता हो धरती पर या पानी में परंतू जब उसे अपने बिल में प्रवेश करना होता है तो उसे अपनी चाल सीधी करनी होती है। कितना सटीक उदाहरण है ये सरलता का योग-ध्यान- प्राणायाम करने वाले समझते हैं, कमर को सीधा किये बिना ध्यान योग की सिद्धि आकाश पुष्पवत् ही है वर्षों तप करने वाला तपस्वी भी अपने समीचीन उद्देश्य के अभाव में तप को दूषित कर देता है।

तप को भोगों की उपलब्धि का साधन मानने वाले का तप वास्तविकता में मायाचार ही तो है। आर्जव धर्म व्यवहार में सरलता से निष्पक्ष होता है व्यवहारिक सरलता हमें स्वभाव की ओर ले जाने का साधन बनती है। और वही सरलता हमारे अंधर समाहित ईश्वरीय गुणों की अभिव्यक्ति का प्रारंभिक सोपान बनती है। कोई नहीं देख रहा ये विचार मायाचार के लिये खाद है जबकि कर्म से कुछ नहीं छुपता ये श्रद्धान उत्तम आर्जव का आधार !

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