डूंगरपुर | बहुसंस्कृति वाले देश में एक कला है बहरूपिया, जो धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। लेकिन कुछ लोग हैं, जो इस कला को इतिहास बनने से रोकने का प्रयास कर रहे हैं। जयपुर निवासी एक ऐसा ही युवक है मयूर जो की बहरूपिया बनकर राजस्थान सहित कई प्रदेशो में जाकर विलुप्त होती भारतीय लोक संस्कृति को बचाने का काम कर रहा है | बदलते जमाने के साथ साथ बहरूपिया का भी जमाना चला गया। गांव-गांव व कस्बों में महीनों तक अपनी रंग रूप साज-सज्जा को विभिन्न परिधानों से सुसज्जित कर लोगों का मनोरंजन करना ही बहरूपियों की कला हुआ करती थी, परन्तु डिश चैनल, स्मार्टफोन और तकनीकी दौर में भारतीय लोक संस्कृति कला विलुप्त होती जा रही है। इस सबसे अलग राजस्थानी बहरूपिया मयूर कला को जीवन्त कर रहा है | मयूर व उसके पिता विक्रम जिले के कई कस्बो में अनेक रूप और एक शरीर से अपनी कला का प्रदर्शन कर लोगों को कभी हंसाकर तो कभी डराकर तो कभी रुलाकर अपने पूर्वजों की धरोहर विद्या से मनोरंजन करा रहे है। मयूर व उसके पिता कभी देवता में शंकर, हनुमान व नारद का रूप धारण कर तो कभी कलाकार में राजकपूर का मेरा नाम जोकर का जोकर, मिस्टर इंडिया का मोगैम्बो तो कभी चंद्रकांता का क्रूर ¨सह, अलिफ लैला का चकमक जिन्न, जानी दुश्मन, दूध दही वाली व गुरु चेला बनकर अपने विशेष शैली व संवाद से लोगों के दिलों में उतर जाता है। प्रस्तुति भी ऐसी की लोग दांतों तले ऊंगली दबाने को मजबूर हो जाते हैं।
चार पीढ़ी से कर रहे बहरूपिया का काम
डूंगरपुर जिले में आये जयपुर निवासी मयूर बहरूपिया ने बताया की उनकी चार पीढ़िया बहरूपिया बनकर लोगो का मनोरंजन का काम कर रहे है | पहले दादा जी बहरूपिया बनकर राजस्थान सहित अन्य राज्यों में जाकर लोगो का मनोरंजन करते थे | वही अब वह उनके पिता के साथ राजस्थान सहित, महाराष्ट्र, गुजरात व एमपी में जाकर बहरूपिया बनते है और लोगो का मनोरंजन करते हुए भारतीय लोक संस्कृति को बचाने का काम कर रहे है | उन्होंने बताया कि उनके लिए यह कोई व्यवसाय नहीं है, बल्कि संस्कृति को बचाने की सेवा है।
कभी पुलिस..कभी डाकू..कभी राम तो कभी रावण बनकर यहाँ-वहा घूमते है और लोगों का मनोरंजन करता है| जैसे बहरूपिया रूप बदलता है उसी तरह वक्त का बदलना भी कुदरत का एक नियम है यही वजह है कि तमाम रूप बदलने के बाद भी ये बहरूपिये अपनी तकदीर नहीं बदल पाए हैं| आज भी कहीं-कहीं ये बहरूपिये बच्चों का मन बहलाते नजर आ जाते हैं| लेकिन यह सच है कि इस कला का प्रदर्शन कर अब इन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती| ऐसे में सरकार का संरक्षण और लोगों से आर्थिक समर्थन नहीं मिलने के कारण ये बहरूपिया हताश और निराश हैं| बहरूपिया, कठपुतली आदि कलाओं को बचाने के लिए सरकार और आमजन का समर्थन जरुरी है|