अंतर्मुखी की मौन साधना का 16वां दिन
शुक्रवार, 20 अगस्त, 2021 भीलूड़ा
मुनि पूज्य सागर की डायरी से……
मौन साधना का 16वां दिन। आज चिंतन में विचार आया कि मनुष्य भगवान को श्रीफल, बादाम, चावल, जल, दूध आदि चढ़ाते समय, मंदिर, धर्मस्थल बनाते समय या बनते देख यह क्यों सोचते है कि भगवान तो खाते नहीं और न ही उन्हें मंदिर की आवश्यकता है, फिर उन्हें इतना क्यों चढ़ाएं, क्यों इतने मंदिर बनवाएं। इससे तो अच्छा, इतने पैसे से गरीबों और मजबूर मनुष्य को भोजन करवा दें, उन्हें मकान बनवा दें, यह सोच ही पाप है।
कुछ देर बाद फिर चिंतन आया कि क्यों मनुष्य ऐसा सोचकर पाप कर्म का बंध कर रहे हैं। क्या इंसान ने कभी यह सोचा कि जब उनके परिचित,परिवार या दोस्तों का जन्मदिन, शादी की सासगिरह या अन्य कोई खुशी का दिन आता है तब उसे उपहार देते हैं। उस समय यह विचार क्यों नहीं आता कि इतने पैसे को किसी गरीब के काम में लगा दूं। तब तो यह कहते है कि ऐसा करना अच्छा नहीं लगेगा, सम्बंध खराब हो जाएंगे। इससे हीन सोच और क्या हो सकती है कि एक संसारी संबंध के नाते हम उपहार देते हैं तो जिनेन्द्र भगवान से संबंध बनाते समय अथवा आराधना के लिए द्रव्य चढ़ाते समय इतना क्यों सोचते हैं? इसका तो यही अर्थ निकलता है कि अभी हमारे अंदर जिनेन्द्र के प्रति अपनवत नहीं है?
चिंतन में आया कि जब मनुष्य अपने बेटे, बेटी की शादी में लाखों रुपये खर्च करते हैं, उस समय क्यों विचार नहीं करता कि इतना खर्च करने के बजाए मंदिर में जाकर भगवान के सामने विधि- विधान के साथ विवाह करवा दूं। बाकी पैसों से गरीबों का मकान बनवा दूं। तब तो यह विचार आता है कि संसार में यह तो व्यवहार तो निभाना ही पड़ता है। जब एक आम मनुष्य से व्यवहार निभाने के लिए आप इतना सोचते हैं और खर्च करते हैं तो फिर जिनेन्द्र भगवान के प्रति इतना समर्पण का भाव तो होना ही चाहिए कि अच्छी सी अच्छी और अधिक से अधिक साम्रगी चढ़ाने के साथ गरीबों की भी सेवा करूंगा। आप अबको इन चिंतन पर चिंतन करना चाहिए और अपने विचारों में परिवर्तन करना चाहिए।